Wednesday, May 28, 2008

एक अज्नबी!!! (भाग - २)

मेरे लीये कीसन से बीच्हड़ ना और रश्मी से दूर होना सबसे बड़ी दुःख की बात | मेरे हर एक बढ़ ती हुईकदम सेहर के मुझे ये एहसास दीलाते थे की मुझे आगे कीतनी मुसीबतें उठानी पड़ेगी | असुएँ तो थम नेकी नाम ही नहीं लेती थी | रो रो के आंख मेरी पुरी लाल हो गई थी | मगर पीताजी इस से कोई लेना देनानहीं था | वो आम के बगीचे, वो नदी के किनारे जेसे मुझे बाहें पसारे बुला रहीथी | और ये हवा जेसे मेरेकानो मैं कर बोल रहीथी, "नीहारीका ! तुम मत जाओ |" वो बारीश की पहली बूंदों की खुशबू, वोदोस्तों के साथ लुका छुपी खेलना सब याद राहा था | गुरूजी की वो बात मुझे अब भी याद हे, "जीन्दगी में कठीनाई आँ कभी कह कर नही आती | ये तो बिन बुलाये मेहमान होते हें | कीसी भी वक्त सकते हें और इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ती | अपने साथ परीवार, बंधू सबको भी लाते हें | इनको डट कर सामना कर नाचाहीए | मुसीबतों से लड़कर ही दूर कीया जा सकता हे |" येही बात में सोच करखुदको समझा रहीथी | टैब दूर से बस् की आवाज़ | मगर में जेसे अनजान थी के इस से कोई लेना देनाहे मेरी | तब जोर से मेरे तों को कीसीने खींचा | ऊपर नजर उठाई तो गुस्से से लाल पीताजी मुझे खींचरहेथे बस् में चढ़ने केलीए | और मेरा वोहीं से गाओं की जमीन से भी नाता टूटा | मुझे कभी उमीद भी नहींथी में फीर अपनी गाओं वापस सकूं | धीरे धीरे बस् आगे बढ़ती गई और मेरे दील में जेसे एक अजब्सीदर्द उमड़ ने लगी | ऐसा लग राहाथा जेसे मेरी छाती को कोई एक चाकू से चीर राहा हे, और में चिल्लारहीं हूँ, "मुझे बचाओ, मुझे बचाओ"; मगर मेरी बात कोई सुन रहे थे | खड़े खड़े सब तमासा देख रहेथे | मुझे लगा जेसे मेरी जान अभी की अभी यहीं पे नीकल जाएगी | ये सोचते सोचते, रोते रोते मेरी सरचकराने लगा और में बेहोस हो गई | और जब आँख खुली तो ख़ुद को मामा जी के घरमे पाई | पलकों केनीचेसे देख ने की कोसिस ही कर रहीथी की पीताजी चील्लाने लगे, "अरे कल्मुहीं अब कीतना सोओगी | अब तो साम हो गई हे, ज़रा उठके घरकी झाडू पोछा तो करले |" मामी भी चील्लाने लगी | तभी मामा जीकी बड़ा बेटा रोहित दौड़ के जा राहाथा कुझ से टकराके निचे गिर पडा | जोर से चील्लाने लगा | उसकाकुछ भी नहीं हाथ, बस् पों में थोड़ा मोच गया था सयद | मगर ऐसा चिल्ला राहाथा जेसे हड्डी टूट गईहो | में कुछ बोलूं तब धम से मेरे गल पे एक चाटा | लगा जेसे सर बीज्ली गिरी हो | पीछे मुद्के देखा तोमामी थी | में सहमी हुईसी पीताजी को देखने लगी, मगर उनके चहरे पे कोई अफ़सोस नहीं था | औरवोही मेरी दर्द को दुगनी कर दी | में कुछ सोचती, जोर से रोने लगी | और एक के बाद एक धम धम सीमार पड़ने लगी | मेने जेसे कोई अपराध कीआहो | गाओं में हमारी एक पड़ोसीइसे ही कुछ बोल रहा था कीजेल में इसी ही मार पड़ती हे | तबसे सोच लिया मेने के अब मेरे लीये ना कोई आगे हे ना कोई पीछे हे | मुझे अब अकेले ही इन मुसीबतों को सामना करना पडेगा | कोई मेरी साथ देने वाला नहीं हे | जीन्दगीकेसे उलटी मारती हे मुझे तब ही पता चला | किस बात की इतनी बड़ी सज़ा, छुपकर में कीसन से बातकरती थी इस बात की? और रात को जब चंपा चुओके से जमीदार के घरको जाती थी उसको क्या कोईगओंवाला नहीं देखता था | नहीं जमीदार को बोलने केलीए किसीकी होम्मत जो नहीं थी | इतनीस्वार्थी हो गई हे ये दुनिया | अगर बाछा रोता नहीं तो माँ दूध भी नहीं देती | अपने अपने स्वार्थ मेंजुड़े हुए हैं | मगर मेरी साथ मेरी अपने, मेरे पीताजी, मेरी माँ छोड़ दिएं हे | अब एक नई दुन्या, नई लोग, नई जगह... फीर मुझे सबसे लाधना पड़ेगा | कौन जाने अपनी जान भी चली जा सकती हे | इन्ही सभीअसंका और डर से में मामी के घरमे रहेने लगी |

आगे भी हे...

Monday, May 26, 2008

एक अज्नबी!!!

वो साम् मुझे अब भी याद हे | में दोस्तों के साथ खेल रही थी | इस्कूल से लौट ने के बाद रश्मी ही मेरी एक ही दोस्त थी जो मेरे साथ खेलती थी | वो मेरी जान से बढ़कर भी थी | मेरी इसी कोई राज नहीं थी जो रश्मी को पता नहीं था | राजू चाचा के आम् चोरी करने से लेकर रवी की माँ की मुर्गिओं को खुला छोड़ देना, सब उसे पता हे | हाँ में तो गाओं की रहने वाली थी, इस से बढ़कर कोई राज की बात क्या हो सकती हे मेरे लिए | मुझे तो नहीं लगता हे की ऐसा कोई हो सकता हे, फीर भी कुछ बात और के ऊपर छोड़ देना ही थिक होता हे | मगर में अब वो संध्या नहीं रही | काफी कुछ बदलाव गया मेरे ऊपर | में जेसे पर्बत के चोतीओं से नीकल कर मैन्दन में बह रही हूँ | ना मुझ में वो पुरानी बली रफ्तार रही ना वो घंघनाहत रही | अब में सीर्फ़ एक बेहती हुई धारा हूं | बारिस में फूल जाती हूं तो गर्मी के मौसम में सुख जाती हूं | अपनी जिंदगी जेसे अपनी ही नहीं रही | और के सहारे जीना पड़ता हे | वो साम् मुझे अब भी याद हे | गाओं की पास एक मंदीर हें जहाँ में रोज साम् को जाती थी दिया जलाने केलीये | रोज की तराह कीसन मुझसे मिलने आया था बाहाँ पे | कीसन तो मेरी जान हें जेसे, उसके एक आवाज़ से जेसे मेरे रोम रोम खड़े हो जाते थे | उसकी एक मुझे सबसे अच्छी लगती थी, उसकी गाने | काफी अछा गाता था | मेरे लिए रोज एक नई गीत काहाँ से सीख के आता था | हाँ दसवी पास नहीं था मगर कीसी BA पास से कम नहीं था | जो भी था मेरे लीये अछा था | मेरी काफ़ी ख़याल रखता था | कहीं पेड़ पे चढ़के आम् लाता तो कभी किभी किसीके बगीचे में चोरी से अमृत लाता था | इतना दंत टी थी उसको मगर ना अपने ये काम से कभी वो बाज आता | अगर में ज्यादा बक बक करती तो यही बोलके मुझे चुप कर देता था, "तुम्हे खुस देख के मेरा सारे गम चले जाते हें | तुम्हारी सीबा मेरा इस दिनुइआ में हें ही कौन | अगर तुम्हारी खुसी के बदले मुझे दो टिन लोगोंकी गाली या मार खाने पडतो में सह लूँगा | मगर तुम्हारे आँखों में एक बूंद आंसू आये तो उसकी सामत समझो |" और में बस चुप | जेसे मेरी मुंह में पट्टी किसने बाँध दिया हो | इतने साल बीत गए हें उस से मिले हुए | मेरे बिन वो पागल अब क्या कर राहा होगा उसका कोई पता नहीं | कास भाग्बन करे ये सब झुती बधन तोडके में फीर उसके पास चलिजाउन? हाँ मेरा तो फीर भूल गई, उस साम् जब हम दोनों बातें कर रहेथे तब चम्पा मौसी हमे छुपके से देख लिया था और घरमे एके माँ को सब बतादिया | अरे मुझे क्या पता था माँ मिछे एके खड़ी थी | कीसन एक कसके छाता मारी | मुझे लगा जेसे मेरे गाल पे पदीथी | मेरे कान को पकड़ ती हुई घरको घसीट के ले गई | और वोही थी मेरी कीसन के साथ आखरी बार मिलना | रात को पिटा जी आये और माँ उनके साथ क्या खुसुर पुसुर कर रही थी, ये तो मुझे पता नहीं | पिटा जी आये और मुझे अपनी बोरिया बिस्तर बंधने के लीये कह गए | मुझे लगा जेसे मुझे कह रहेथे कम और धमका रहेथे ज्यादा | और सुबह मुझे लेगये सेहर अपनी मामा के पास | ना मेने कीसन को देखा ना मेने रश्मी को | मेरा बचपन वोहीं पे मिटटी में मिल गई | होंठ से जेसे मुस्कान ही गम हो गई | जब भी ये बात याद आती हें मेरे आँखों में पानी जाती हें | हें भगबान मेने ऐसा क्या जुर्म कियाथा जिसकी इतनी बड़ी सजा मुझे दे रहे हो आप | मुझे मर किउन नहीं देते |

आगे
भी हे...

Friday, May 23, 2008

एक इत्फाक मेरी जीन्दगी में !

ये एक इत्फाक की बात हे की हम दोनों एक ही ट्रेन में सफर कर रहेथे | तक्रिवन साल के बाद मेने उसे देखा | काफ़ी बदलाव गया था उसमे | में तो सोच राहाथा की वो मुझे पहचान पाएगी भी या नहीं | मगर आख़िर में मेन्ही ग़लत सवित हुआ | हाँ वो सयद थोडी काली थी मगर ये उसे जाच रहाथा | एक ही नजर में वो मुझे पहचान गई थी | पहले से काफी अच्छी दिख रही थी | वो उलझी बाल, वो सिम्प्ले कपडा अब नहीं राहा | वो तो पूरा मोदेर्ण हो छुकी थी | जो भी थी मगर दिल को भा देने बाली थी | ट्रेन अपनी राप्तार में था | बाहार धुप भी खीली हुई थी जेसे सूरज अपनी कहर बरसा राहाथा | दो तीन बार मेने आँख लाधाने की कोसिस की मगर कर नहीं पाया | सायद मेरी कमजोरी थी | मुझे लगता हे की वो भी एसिही कुछ फीलिंग्स पे थी | जो भी हो इतना तो सुकून मिला के वो मिली मुझे | मेरे कहने का मतलब हे ये हे की अब तो कोई बाहाना मिले उस से मिलने केलिए | मुझे अब भी पता नहीं उसे ये महसूस हो रहा होगा या नहीं | मगर में मनही मन खुस था | में रोज उसे कॉलेज से लौटने के बाद उस से धुन्दता फिरता था | कौन से डिब्बे में बो बेठी होगी | और जब बो दिख जाती थी मानो जेसे मुझे सारा आस्मां मिल गया हो | दो तीन दीन तो इसे ही बीत ते गए | कोई अफसोस ही नहीं थी इस बात की के वो मुझे मिउन कुछ नहीं बोलती थी या में उस से किउन कुछ पूछ नहीं पा राहा था | मेने ये सब बात अपने दोस्त को बोलता था रोज रात को | वो बोला तू बतादेता कुन नहीं, बात चित सुरु किउन नहीं करता? मेने ठान लिया के आज ही पूछ कर छोडूंगा उसे | जब ट्रेन में मुलाकात हुई तो वोही रोज बाली बात, वो हँसी, वो छुप छुप के देखना, वो देख कर ना देख ने का बाहाना | में रोज की तरह आगे ट्रेन से उतर ने के बजाये थोरा रुक के उसके पीछे खडा राहा | और जेसेही हम दोनों उतरे वो सदंली मुझे वोली, "है! केसे हो? पहचान नहीं पा रहे हो जेसे, इसे देख रहे हो मुझे ट्रेन में? क्या बात हे मिआं, कुछ और इरादा हे क्या?" मेरे सारे किए कराये पर पानी फेर दिया | चलो छोड़ कुछ तो बनी बात | कुछ दूर तक दोनों चलके गए | और वो निकल पड़ी अपनी कम्पूटर क्लास के तरफ़ और में निकल पडा अपने हॉस्टल के तरफ़ | एक दिन मुझे एक कॉल आया | कुछ सुन ते ही मेने उसकी आवाज पहचान लिया | और जेसे ही वो बोलती गई मेरे नव्ज़ ढीले पड़ते गए | मेरे दिमाग जेसे काम करना छोड़ दिया हो | मेने फोन काट दिया | बड़ा अफ़सोस लगा लगा, मगर टैब मुझे जो थिक लगा मेने वोही किया | उसकी सगाई होने बाली थी और वो मुझे अपनी खुसी इजहार कर रही थी | ना में तबसे उसे देखा हूँ ना मिलने की उमीद कर रहा हूँ | सोचाथा अगर वो मेरी जिंदगी में आयेगी तो मेरी जिंदगी स्वर सकती हे | मगर भगवान् को ये सयद मंजूर नहीं था | सोचाथा कुछ हो नाहो अपनी ये अकेलापन तो दूर हो सकती हे | नहीं ये नहीं हुआ | फिर वोही रोज बाली बात | वोही ट्रेन, वोही लोक, वोही कड़ी धुप | कुछ नहीं बदला | में फिर वोही अकेला, फिर इंतज़ार में | कोई तो आयेगी मेरे जिंदगी में | वो आई इत्फाक से, मिली इत्फाक से और चली भी गई इत्फाक से...