और इक गुफ्तगू मुहब्बत की!
ये एहसास हे हमें के भूल हुइहे हमसे,
फिर भी ज़माने को बताना पड़ता हे,
हम खुदको बेकसूर तो नहीं कहते,
कसूरवार कभी खुदको बनना पड़ता हे!
समझ लीजिये ये इक अजब सी मज़बूरी थी,
वरना हम तो किसीकी सपनो की यादें होते,
प्यार तो हम अपनी तहे दिल से बहत करते हें,
सिर्फ़ जान ही जो हे उनके कदमोमे हम रखते!
मासा आल्हा क्या खूब बनाई ये दुनिया मुहब्बत की,
कोई गबार भी लिखने लगा हे सायरी फुर्सत में,
चाँद भी आज खूब खिली हे चान्दिनी बिखराके,
डूब ना हो जाऊँ आज कहीं तेरी इन मद्होस आँखों में!
खायालें तो खूब अति हे आपकी रोज नींदों में,
डर हे तो सिर्फ़ खो जाने की इस सपनो की मेले में!
फिर भी ज़माने को बताना पड़ता हे,
हम खुदको बेकसूर तो नहीं कहते,
कसूरवार कभी खुदको बनना पड़ता हे!
समझ लीजिये ये इक अजब सी मज़बूरी थी,
वरना हम तो किसीकी सपनो की यादें होते,
प्यार तो हम अपनी तहे दिल से बहत करते हें,
सिर्फ़ जान ही जो हे उनके कदमोमे हम रखते!
मासा आल्हा क्या खूब बनाई ये दुनिया मुहब्बत की,
कोई गबार भी लिखने लगा हे सायरी फुर्सत में,
चाँद भी आज खूब खिली हे चान्दिनी बिखराके,
डूब ना हो जाऊँ आज कहीं तेरी इन मद्होस आँखों में!
खायालें तो खूब अति हे आपकी रोज नींदों में,
डर हे तो सिर्फ़ खो जाने की इस सपनो की मेले में!
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