Tuesday, November 18, 2008

इक दिया जले छोटी सी !

इक दिया जले छोटी सी करे अंधेरे को उजिआरा,
ना बेर उसकी चन्दा से ना सोचे खुदको तारा|

जलती रहेती सारी रात खुदको यूँही जलाके,
चाहे मन्दिर हो या गाँव की छोटी सी कुटिया,
चाहे मधुशाला हो या किसी गाँव की चौराह,
जलाती रहती ढेरों अर्मनोंको उजिआरा बनाके|

कभी सुनसान हवेली की चौकीदारी में तो,
कभी बचों की केलिए रोज जलती रहती हे,
कभी धुन्दलती बूढी अन्खोकी सहारा बनती,
तो कभी दिवाली की जस्न की हिस्सा बनती हे|

क्या कुछ बनती नहीं वो औरों की खातिर,
कोई समझे आखिर उसकी कुर्वानी हे क्या,
किसकी उमीद केलिए तो वो जलती रहती हे,
किसीको भी पता नहीं उसकी पहचान हे क्या|

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5 Comments:

Blogger अभिषेक मिश्र said...

अच्छी शुरुआत है. स्वागत.

November 19, 2008 at 10:56 PM  
Blogger Amit K Sagar said...

ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. खूब लिखें, खूब पढ़ें, स्वच्छ समाज का रूप धरें, बुराई को मिटायें, अच्छाई जगत को सिखाएं...खूब लिखें-लिखायें...
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आप मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रित हैं.
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अमित के. सागर

November 20, 2008 at 1:02 AM  
Blogger संगीता पुरी said...

इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका हिन्‍दी चिटठा जगत में स्‍वागत है। आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को मजबूत बनाएंगे। हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

November 20, 2008 at 2:25 AM  
Blogger गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

deepak jalne se pahle kabhee nahi puchhata kee mujhe kahan jalna hai. ghar ya shamshan. narayan narayan

November 20, 2008 at 6:49 PM  
Blogger Skull said...

आप सबको मेरा प्यार भरा नमस्कार,
आपकी छोटी छोटी टिपण्णी मेरे ब्लॉग में मुझे आगे इसे ही उस्छाह देती रहेगी|
में तो हिन्दी ठीक तरह से लिख पाता नहीं | अगर मुझसे कोई भूल हो गई होगी तो कृपया मेरे नजर में लाये।
आप सबको में असेस आभारी हूँ
आपकी
स्कल!

November 22, 2008 at 8:15 AM  

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